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Sunday, 18 October 2020

पहले के जैसे


 पहले के जैसे

अब वो लोग नजर नही आते, 

धुंधली आंखो से भीड में अब चेहरे नहीं पहचाने जाते, 


पास बैठकर बातें करना बीती बात थी,

अब लौटकर वो जमाने नहीं आते। 


पुराने खतो को अब कौन बार बार पढा करता हैं,

मोबाइल के इस दौर में अब पहले के जैसे उनमें

तराने नहीं आते। 


तरक्कीया करली हैं कि अब तो नफरतो ने भी,

मुस्कुरा के कत्ल करदो तो लोग गम जताने नहीं है आते। 


और सुना हैं कि एब उसे भी लग गया है 

महफ़िल में जाने का, 

मगर अफसोस की वो चार दोस्त पुराने नही आते। 


पहले के जैसे अब जमाने नही आते। 



स्वरचित 

सुमन

इस क्षणिक जीवन में

 



इस क्षणिक जीवन में

हर स्त्री चाहती है

एक ऐसा कंधा

जो उसके मन का बोझ ढो सके

जिस पर सर रखकर

वो हो जाना चाहती है निश्चिंत

मन में उपजे हर विषाद का

विराम चाहती है वहां

जानती है इसकी मजबूती

और कई रिश्तों के 

टंगे हैं इस पर झोले

और सहजता से उठा लेता है

ये सबका बस्ता

नभ की तरह अटल है

इस पर किया जाने वाला विश्वास

कोई अलंकार इसकी विशिष्टता

को नहीं कर पाता चिन्हित

इसका श्रृंगार इसकी बलिष्ठता है

हर स्त्री बन जाना चाहती है डेल्टा

उस विशाल सागर में समाहित होने से पूर्व

खामोशी और उदासीनता के आवरण में 

वो बन जाना चाहती है उन अधरों की मुस्कान

इस क्षणिक जीवन में

चार कंधों से पहले वो

चाहती है एक कंधा!!


ममता धवन 

(नई दिल्ली )

समर तुम्हें लड़ना होगा





समर तुम्हें लड़ना होगा

सुनो, सुकुमारियों अपनी खातिर

दृढ़ प्रण  तुम्हें अब  करना होगा

त्यागकर कोमल मार्ग तुम्हें अब

अग्निपथ चयन कर चलना होगा


बहुत ढो चुकी भार व्यथा का

लपट ज्वाला बन जला दो तुम

धूलि कन जो हैं तुम्हें समझते

संहारिका बन उन्हें दिखा दो तुम


मौन तोड़ सदियों का तुमको

हस्त शस्त्र धारण करना होगा

अब निर्झर शीतल धार  नहीं

अग्नि अबाध दरिया बनना होगा


आभूषण लालच छोड़ तुम्हें

अंग शस्त्र भूषित करना होगा

अपनी लाज बचाने को तन्याओं

अग्निकुंड तुम्हें बनना होगा


देवालय,धर्म चौखटें लांघकर

पाप- पुण्य छोड़ बढ़ना होगा

अपने कोमल गात का तुमको

स्वयं रक्षण अब करना  होगा


उर, मस्तिष्क से मूर्तियों का भ्रम

खोल हटा, सत्यदर्शी बनना होगा

तार्किक, शक्तिशालिनी बनकर

देह,अधिकार समर डट लड़ना होगा

~ डॉ. राजकुमारी

  सहायक प्रवक्ता

    नई दिल्ली

कौन कहता हैं

 


कौन कहता हैं आलोचनाएँ रोक सकती हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ प्रगति पथ पर रोड़े जैसी हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ बल नहीं देती ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ सबंल नहीं देती? 


आलोचनाएँ प्रगति पथ प्रशस्त करती हैं ।

आलोचनाएँ रक्त में ऊबाल भरती हैं ।

आलोचना हैं तो क्या साहस से खड़ा हूँ मैं ?

आलोचना हैं तो क्या पर्वत से लड़ा हूँ मैं? 


आलोचनाएँ हमको सुमार्ग देती हैं ।

आलोचनाएँ हमको गंतव्य हजार देती हैं ।

आलोचनाएँ मझधार में पतवार जैसी हैं ।

आलोचनाएँ संघर्ष पथ पर फुहार जैसी हैं ।


आलोचना नहीं जिसकी समझो वो जीवित नहीं यहाँ ।

जो -जो चाँद बनकर चमका सबकी हुई थी आलोचना यहाँ ।

आलोचनाओं की सीढ़ी बनाकर व्योम पर चढ़ूंगा मैं ।

चमकूंगा चाँद बनकर सबको रौशन करूंगा मैं ।


फिर आलोचनाओं से क्यों डर कर जिएंगे हम ?

आगे बढ़ेगें हम आलोचनाओं को शीर्ष पर रखेंगे हम ।।


संध्या झा 

पटना (बिहार)

वो चार लोग






 वो चार लोग

बचपन से लेकर आज तक दूंढ रही हूँ मैं, 

कहाँ है वो चार लोग जिनके लिए अपनो से डरी मैं, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए बचपन से दबी मैं, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए अपने सपने छोड़े मैंने, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए हँसना छोड़ दिया मैंने, 

 किया मुझे मेरे ही सपनो मे गुम मिटा दिये मेरे सारे ख़्वाब, 

कहते हैं वो चार लोग ऐसे देखेंगे तो क्या कहेंगे, 

क्या सोचेंगे वो चार लोग यह सोचकर अपनी सोच खो दी मैंने, 

और आज खोजती हूँ मैं वो चार लोगो को जिन्होंने मेरे जन्म से लेकर

आज तक लड़की होना कितना गलत है ये समझाया,

मुझे दहलीज दिखाई और खुद आसमान देखते थे, 

मेरे पंख तोड़ कर ख़ुद उड़ाने भरते रहे, 

कहाँ है आज वो चार लोग जब मेरी आबरू लुटती रही बाजारों में, 

जब जब ढूँढ़ा उन्हे ना मिले मुझे वो चार लोग, 

आज मेरी मौत की शैया मे आए नजर मुझे वो चार लोग,

जिनकी खुशी के लिए मैंने ख़ुदको तबाह कर दिया, 

आज नजर आए मुझे वो चार लोग।।।


श्रीमती नीलिमा 

जबलपुर 

कहानी ही तो हूँ बस........




 कहानी ही तो हूँ बस........

कहीं कोख में मारे जाने की,

कभी पैदा होने पर कुचले जाने की,

कभी भूखे भेडि़यों की प्यास बनी,

मेरा अस्तित्व है ही कहाँ,

पैदा होने पर श्राप बताया,

जाने किस-किसने क्या-क्या,

 मेरी माँ को सुनाया,

बुआ-दादी की आँखो की चुभन बनी,

कब किसने मेरे मन की सुनी,

ससुराल भेज मुझको सबको चैन आया,

मायके से बैगाना बनाया,

मेरे अपनो ने ही पराया धन बताया,

ससुराल में भी,

वजूद पाने की जद्वोजहद रही,

पति के नाम से मेरी पहचान बनी,

सासू माँ को पौता दे दूँ,

पति की सेज सजादूँ,

घर के हर कोने की मैं जरूरत बनी,

वजूद अपना हर वक्त तलाशती रही,

ना मैं मायके में कुछ थी,

ना मैं ससुराल में कुछ बनी

कहानी ही तो हूँ बस....... एक स्त्री।।



डाँ.नवीन

(हरियाणा )

मैं एक लड़की हूँ।





 मैं एक लड़की हूँ।

जोर से न हंसू,

कही न जाऊँ,

घर के काम सीखू,

क्यौंकि मैं एक लड़की हूँ।


सादा रूप है मेरा,

रंग भी है काला,

फिर दहेज भी ज्यादा,

क्योकि मैं एक लड़की हूँ।


विवाह के बाद मैं जिम्मेदार,

बच्चे,बड़े,घर और परिवार,

सारी बातों के लिये तय्यार,

क्योकिं मैं एक लड़की हूँ।


चुप रहू कुछ न बोलू ,

सिर्फ मै  सबकी सुनू,

खुली जुबां तो बातें चार,

क्योकि मैं एक लड़की हूँ।


झरना माथुर 

उतराखंड 

टूटे दिल को मेरे तू प्यार ना सीखा,





मत झाँक मुझे चँदा खिड़की की ओट से,
आती है उसकी याद, दिल रोता है ज़ोर से।

चाँदनी में लिपटी संसार ना दिखा,
'प्रीति'की तू रश्में हज़ार ना सीखा।
बहता है काज़ल आँखियों के कोर से
जाती नहीं है याद,
मेरे दिल के ठौर से।

बहारों के मौसम का श्रृंगार ना दिखा,
कैसे रोती है रात बेज़ार ना दिखा।
मत झाँक मुझे सूरज आँगन में भोर से,
पुरानी 'प्रीति' की अगन, दिल रोता ज़ोर से।
टूटे दिल को मेरे तू प्यार ना सीखा,
कैसे बिकता है दिल बाज़ार ना दिखा।
मत झाँक मुझे चँदा खिड़की की ओट से,
आती है उसकी याद, दिल रोता ज़ोर से।

प्रीति मधुलिका

Sunday, 11 October 2020

                                                   




                                                    


                                                           तू घर जल्दी चले जाया कर

ये तेरे घर के कूचे में लगा वह पुराना बरगद का पेड़ , जहां आज तू तो नहीं है ! पर तेरी अनुपस्थिति में इन दरख़्तों से बात कर रही हूँ ! जब तेरे खामोशी के अल्फ़ाज़ मेरे जहन को झंझोर रहे रहे थे तभी उन दरख़्तों के दरीचो से एक आवाज आई ....! तू घर जल्दी चले जाया कर वो तेरा इंतजार जो है न ? जब तुझसे मुकम्मल होगा तब तक न जाने खुद से भी कितने फासले बना चुका होगा ....!
तू घर जल्दी चले जाया कर हे दरख़्तों तुम ये क्या कह रहे हो, मेरा इश्क तेरी नई कोपलों की तरह हर सावन में नहीं फूटता ! हाँ , मुहब्बत तो है उसी से , ये मौसमी नहीं होता । इस बात की उसे भी खबर है कि कोई उसका इंतजार झरोखे से टिककर, इस कदर कर रहा होगा ! अगर वो पलकें झपका भी ले ? तो उसे अफसोस होगा , कहीं इस दरमियान वो आकर चला ना जाए । फिर वही आवाज .....! वो तेरे हर रोज की बावली सी जुस्तजू से खुद भी फिक्र मन तो है... पर ? वो तेरे चाहत के सफर में उस हद तक, चल कर भी चल ना सकेगा ! देख तू घर जल्दी चले जाया कर हाँ, मैं एक दिन समय पर घर चली जाऊंगी, ये मेरी आदत में शामिल तो हो गया है , और वो कौन सा मेरा वजूद है जो कायम रहेगा ! पर ये क्या....! मैं तेरी कुरबत में रहकर आज तेरी आंखों में अपने से वह बेबसी की दूरियां क्यों देख रही हूँ , कितना मुश्किल होता है न.... ? अपने दर्द को उस बनावटी हंसी की ओट में छुपा कर यह कह देना कि, अब तू घर जल्दी चले जाया कर हाँ, वो तो वक्त पर घर चला जाता है , खुद को मेरे पास ही छोड़ कर ! ये सूखे पत्तों की सरसराहट , ये मुंह पर त्वरा की तरह हवा के झोंके ये एहसास नहीं है , उसके होने के ! "यकिंन वो यही है"... ये दरवाजे पर साखल की खनक , हवा का झोंका है ! मुझे इस तरह उसके आने का इंतजार नहीं है ! विश्वास है कि वो भीतर ही है ! देख इस वक्त खुदा के दरबार में तेरी ही पुकार हो रही है....! 【तभी अजान होती है करीब 6:30 सांझ का समय ]
फिर वही आवाज ......! मैं बहुत दूर चला गया हूँ ,इस जालिम जमाने से मेरी "जान" ! तु जिसे साए की तरह साथ समझती थी न ? बेशक वो है तो तेरे ही साथ बस इस बेदर्द जमाने से, नकाब में रहकर तुझे देखा करता है ...! इतना कहते हुए वो पेड़ की ओट से सामने आ जाता है ! उसे देखते ही मैं स्तंभित हो जाती हूँ ! फिर हम दोनों ही धरती पर शीश झुका कर , "खुदा का इस्तकबाल करते हैं"! वो मुझे कांधे से पकड़ते हुए नम पलकों व रूंधे गले से पेशानी पर चुंबन देता है ...! मैं उस रूहानी दौलत में रूह तलक भीग जाती हूँ ! फिर वो ढांढस का आलिंगन से बिखरे स्वप्न को कसकर फिर कभी भी विलग न हो , खुद में समेट लेता है ! तभी नमाज का आखिरी कलाम पढ़ा जाता है ....! अल्लाह हो अकबर ...., अल्लाह हो अकबर .....! धरती को चूम कर फिर फैलाये हाथों से खामोश इबादत में प्रेम अश्कों के पुष्प समर्पित करते हुए..., शुक्र करते हैं ! उसकी रहगुजर का ....।
इंदौर से मैं सपना रमण भाई पटेल

Friday, 9 October 2020

मेरी कविता जैसे हो तुम!


           

 

 मेरी कविता जैसे हो तुम!

माना मुझे कविता लिखना नहीं 

आता ,पर मेरे अंतर्मन से निकले 

हर शब्दों का अहसास हो तुम।

मेरे प्यार की एक अलग पहचान
हो ,तुम जिसकी दर्द भरी अपनी
एक अलग कहानी हो तुम।
मेरी परिकल्पना के एक एक
कणों में मौजूद हो तुम, 
मेर कविता तो नहीं फिर भी मेरी  
कविता जैसे ही,हो तुम।
मेरी आँखों के वो स्वप्निल एहसास
हो,तुम जो नित नित दिन सपने
संजोते है।
मैं एक कवि तो नहीं पर मेरी
कविता तुम बिन कभी पूरी भी
नहीं।………
मेरे प्यार के प्यास की वो
आस हो,तुम जो नए नए
राग रोज बुनती है।
माना! तुम मेरी कविता नहीं

फिर भी, मेरी कविता के एक

एक शब्दों जैसे ही हो तुम

 

उषा यादव्
हैदराबाद, तेलंगाना

ना जाने तुम से मेरा कौन सा कनेक्शन है

 



ना जाने तुम से मेरा कौन सा कनेक्शन है

तेरे दिल से मेरा ना जाने कौन सा कनेक्शन है, 

सांस तुम लेते हो, पहुँच मुझ तक जाता हैं, 

आहे तुम भरते हो,दर्द  मुझे होता है,  

 चोट तुम खाते हो,जख्म मुझे होता हैं। 


तेरे दिल से मेरा ना जाने कौन सा कनेक्शन है,  

तुम मुझे याद करते हो और मैं दौड़ी चली आती हूँ, 

तुम भूखे रहते हो और मैं तड़पती हूँ

तुम खुश रहते हो, और मैं खिल जाती हूँ। 


तेरे दिल से मेरा ना जाने कौन सा कनेक्शन है, 

तुम दूर रहते हो,पर अहसास अपनी बाँहों करती हूँ,

पलके मैं झुकाती हूँ, सामने तुम नज़र आते हो,

दूरी तुम बढाते हो,जान मेरी जाती है।


तेरे दिल से मेरा ना जाने कौन सा कनेक्शन है, 

जब जब मैं सोचती हूँ, दिल में धड़क उठता है,

जब तुम ख़ामोश होते हो,दिल में क़सक उठती है,

जब तुम  प्यार करते हो ,तो मैं जी उठती हूँ। 

    भावना मिश्रा 

   नई दिल्ली।

Thursday, 8 October 2020

संताप की अग्नि मे तुझे जलना होगा






 संताप की अग्नि मे तुझे जलना होगा


संताप की अग्नि में तुझे जलना होगा, 

हर दिन हर पल जलना होगा। 

समय रहते ना तुम समझे, 

अब हर दिन इसका अफसोस करना होगा। 

जननी थी वो तुम्हारी, 

तुम्हारी खुशी उसे सब से प्यारी। 

पर तूने कभी ना, 

उसकी खुशी पहचानी। 

राह तेरी देखत देखत, 

नैन उसके पथरा गये, 

अब तुझे जिंदगी भर रो रो कर

आँसुओ को पीना होगा। 

उसने अपने सारे फर्ज़ धीरे धीरे निभा दिये। 

अपने सारे बच्चों को आँखो के सामने बसा लिए। 

जब तेरी बारी आई हे पूत, 

तू दुनिया की चकाचौन्ध में चला गया। 

अब उसी चकाचौन्ध में

तुझको अकेला रहना होगा। 

कितनी अभागन रही वो माँ, 

ना मूल देख सकी ना सूद

दिन रात उसी की राह में घुटती रही खुद। 

उसके इस दुःख का भोग तुझे भोगना होगा। 

संताप की अग्नि में तुझे जलना होगा।

देख अभागा आज तू , 

देवी के अंतिम दर्शन ना कर सका

उसको अग्नि में समर्पित करने का 

सौभाग्य भी ना तुझे मिला। 

अब इसी दुर्भाग्य के साथ तुझको अब चलना होगा

संताप की अग्नि में तुझे अब जलना होगा। 


स्वाति झा


जमशेदपुर (झारखंड)