कौन कहता हैं आलोचनाएँ रोक सकती हैं ?
कौन कहता हैं आलोचनाएँ प्रगति पथ पर रोड़े जैसी हैं ?
कौन कहता हैं आलोचनाएँ बल नहीं देती ?
कौन कहता हैं आलोचनाएँ सबंल नहीं देती?
आलोचनाएँ प्रगति पथ प्रशस्त करती हैं ।
आलोचनाएँ रक्त में ऊबाल भरती हैं ।
आलोचना हैं तो क्या साहस से खड़ा हूँ मैं ?
आलोचना हैं तो क्या पर्वत से लड़ा हूँ मैं?
आलोचनाएँ हमको सुमार्ग देती हैं ।
आलोचनाएँ हमको गंतव्य हजार देती हैं ।
आलोचनाएँ मझधार में पतवार जैसी हैं ।
आलोचनाएँ संघर्ष पथ पर फुहार जैसी हैं ।
आलोचना नहीं जिसकी समझो वो जीवित नहीं यहाँ ।
जो -जो चाँद बनकर चमका सबकी हुई थी आलोचना यहाँ ।
आलोचनाओं की सीढ़ी बनाकर व्योम पर चढ़ूंगा मैं ।
चमकूंगा चाँद बनकर सबको रौशन करूंगा मैं ।
फिर आलोचनाओं से क्यों डर कर जिएंगे हम ?
आगे बढ़ेगें हम आलोचनाओं को शीर्ष पर रखेंगे हम ।।
संध्या झा
पटना (बिहार)
हार्दिक शुभकामनाएं🌹💐💐
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