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Sunday 18 October 2020

कौन कहता हैं

 


कौन कहता हैं आलोचनाएँ रोक सकती हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ प्रगति पथ पर रोड़े जैसी हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ बल नहीं देती ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ सबंल नहीं देती? 


आलोचनाएँ प्रगति पथ प्रशस्त करती हैं ।

आलोचनाएँ रक्त में ऊबाल भरती हैं ।

आलोचना हैं तो क्या साहस से खड़ा हूँ मैं ?

आलोचना हैं तो क्या पर्वत से लड़ा हूँ मैं? 


आलोचनाएँ हमको सुमार्ग देती हैं ।

आलोचनाएँ हमको गंतव्य हजार देती हैं ।

आलोचनाएँ मझधार में पतवार जैसी हैं ।

आलोचनाएँ संघर्ष पथ पर फुहार जैसी हैं ।


आलोचना नहीं जिसकी समझो वो जीवित नहीं यहाँ ।

जो -जो चाँद बनकर चमका सबकी हुई थी आलोचना यहाँ ।

आलोचनाओं की सीढ़ी बनाकर व्योम पर चढ़ूंगा मैं ।

चमकूंगा चाँद बनकर सबको रौशन करूंगा मैं ।


फिर आलोचनाओं से क्यों डर कर जिएंगे हम ?

आगे बढ़ेगें हम आलोचनाओं को शीर्ष पर रखेंगे हम ।।


संध्या झा 

पटना (बिहार)

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