इस क्षणिक जीवन में
हर स्त्री चाहती है
एक ऐसा कंधा
जो उसके मन का बोझ ढो सके
जिस पर सर रखकर
वो हो जाना चाहती है निश्चिंत
मन में उपजे हर विषाद का
विराम चाहती है वहां
जानती है इसकी मजबूती
और कई रिश्तों के
टंगे हैं इस पर झोले
और सहजता से उठा लेता है
ये सबका बस्ता
नभ की तरह अटल है
इस पर किया जाने वाला विश्वास
कोई अलंकार इसकी विशिष्टता
को नहीं कर पाता चिन्हित
इसका श्रृंगार इसकी बलिष्ठता है
हर स्त्री बन जाना चाहती है डेल्टा
उस विशाल सागर में समाहित होने से पूर्व
खामोशी और उदासीनता के आवरण में
वो बन जाना चाहती है उन अधरों की मुस्कान
इस क्षणिक जीवन में
चार कंधों से पहले वो
चाहती है एक कंधा!!
ममता धवन
(नई दिल्ली )
बहुत सुंदर कविता।
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