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Sunday 11 October 2020

                                                   




                                                    


                                                           तू घर जल्दी चले जाया कर

ये तेरे घर के कूचे में लगा वह पुराना बरगद का पेड़ , जहां आज तू तो नहीं है ! पर तेरी अनुपस्थिति में इन दरख़्तों से बात कर रही हूँ ! जब तेरे खामोशी के अल्फ़ाज़ मेरे जहन को झंझोर रहे रहे थे तभी उन दरख़्तों के दरीचो से एक आवाज आई ....! तू घर जल्दी चले जाया कर वो तेरा इंतजार जो है न ? जब तुझसे मुकम्मल होगा तब तक न जाने खुद से भी कितने फासले बना चुका होगा ....!
तू घर जल्दी चले जाया कर हे दरख़्तों तुम ये क्या कह रहे हो, मेरा इश्क तेरी नई कोपलों की तरह हर सावन में नहीं फूटता ! हाँ , मुहब्बत तो है उसी से , ये मौसमी नहीं होता । इस बात की उसे भी खबर है कि कोई उसका इंतजार झरोखे से टिककर, इस कदर कर रहा होगा ! अगर वो पलकें झपका भी ले ? तो उसे अफसोस होगा , कहीं इस दरमियान वो आकर चला ना जाए । फिर वही आवाज .....! वो तेरे हर रोज की बावली सी जुस्तजू से खुद भी फिक्र मन तो है... पर ? वो तेरे चाहत के सफर में उस हद तक, चल कर भी चल ना सकेगा ! देख तू घर जल्दी चले जाया कर हाँ, मैं एक दिन समय पर घर चली जाऊंगी, ये मेरी आदत में शामिल तो हो गया है , और वो कौन सा मेरा वजूद है जो कायम रहेगा ! पर ये क्या....! मैं तेरी कुरबत में रहकर आज तेरी आंखों में अपने से वह बेबसी की दूरियां क्यों देख रही हूँ , कितना मुश्किल होता है न.... ? अपने दर्द को उस बनावटी हंसी की ओट में छुपा कर यह कह देना कि, अब तू घर जल्दी चले जाया कर हाँ, वो तो वक्त पर घर चला जाता है , खुद को मेरे पास ही छोड़ कर ! ये सूखे पत्तों की सरसराहट , ये मुंह पर त्वरा की तरह हवा के झोंके ये एहसास नहीं है , उसके होने के ! "यकिंन वो यही है"... ये दरवाजे पर साखल की खनक , हवा का झोंका है ! मुझे इस तरह उसके आने का इंतजार नहीं है ! विश्वास है कि वो भीतर ही है ! देख इस वक्त खुदा के दरबार में तेरी ही पुकार हो रही है....! 【तभी अजान होती है करीब 6:30 सांझ का समय ]
फिर वही आवाज ......! मैं बहुत दूर चला गया हूँ ,इस जालिम जमाने से मेरी "जान" ! तु जिसे साए की तरह साथ समझती थी न ? बेशक वो है तो तेरे ही साथ बस इस बेदर्द जमाने से, नकाब में रहकर तुझे देखा करता है ...! इतना कहते हुए वो पेड़ की ओट से सामने आ जाता है ! उसे देखते ही मैं स्तंभित हो जाती हूँ ! फिर हम दोनों ही धरती पर शीश झुका कर , "खुदा का इस्तकबाल करते हैं"! वो मुझे कांधे से पकड़ते हुए नम पलकों व रूंधे गले से पेशानी पर चुंबन देता है ...! मैं उस रूहानी दौलत में रूह तलक भीग जाती हूँ ! फिर वो ढांढस का आलिंगन से बिखरे स्वप्न को कसकर फिर कभी भी विलग न हो , खुद में समेट लेता है ! तभी नमाज का आखिरी कलाम पढ़ा जाता है ....! अल्लाह हो अकबर ...., अल्लाह हो अकबर .....! धरती को चूम कर फिर फैलाये हाथों से खामोश इबादत में प्रेम अश्कों के पुष्प समर्पित करते हुए..., शुक्र करते हैं ! उसकी रहगुजर का ....।
इंदौर से मैं सपना रमण भाई पटेल

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