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Saturday, 26 December 2020

मुक़्क़मल हुआ हो इश्क़




                                                मुक़्क़मल हुआ हो इश्क़ जिसका

उन हाथों की लकीर देखनी है

जिसने रांझा के लिए अपना सब कुछ छोड़
दिया मुझे इश्क़ मे दीवानी हीर देखनी है

मुक़्क़मल हुआ हो इश्क़ जिसका
उन हाथों की लकीर देखनी है....
छोड़ के तुझे बस मै ही तड़पी हूं
शायद कभी मुलाक़ात कर चाय पर 
मुझे तेरे भी दिल की पीर देखनी है

मुझसे दूर जाने को तूने हजार बहाने बता दिये
रोका किसने था तुझे आज मुझे वो जंजीर देखनी है

मुकम्मल हुआ हो इश्क़ जिसका मुझे उन हाथों की लकीर देखनी है.....

नेहा चंदरदीप
(राजस्थान)

Sunday, 20 December 2020

मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा..

                            

    


मैं चुप हूँ, मैं चुप हूँ।

                  ...:                                                                                                                                            

             मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा..

मैं चुप हूँ, मैं चुप हूँ।
मैं चुप हूँ बेजुबानी सा।
है दिल में  समुंदर दबा हुआ,
मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा।।

जो तू सुनती नहीं, मैं कहता वही।
तुझे फिक्र नहीं, मेरा ज़िक्र नहीं।।
करूँ किस्सा ए महोब्बत बयाँ कैसे?
मेरा ईश्क़ अधूरी कहानी सा।
है दिल में  समुंदर दबा हुआ,
मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा।।

पल पल, पल पल, हर पल,
छाई है कैसी ये उलझन?
तुझे इकरार नही,
मेरा इज़हार वही।
मैं थाम लूँ कैसे दामन को?
तेरा अक्स हवा की रवानी सा।
है दिल में  समुंदर दबा हुआ,
मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा।।

है दिल में हसरतें जवां जवां।
है फ़िज़ा में बिखरा धुंआ धुंआ
लब्ज़ मेरे बेबस है तो क्या?
मैं पढ़ता हूँ तेरा कलमा दुआ।
मैं काफ़िर नहीं ख़ुदा की कसम,
तेरा नाम लबों पे रब्बानी सा।।
है दिल में  समुंदर दबा हुआ,
मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा।।

मैं चुप हूँ, मैं चुप हूँ,
मैं चुप हूँ बेजुबानी सा।
है दिल में  समुंदर दबा हुआ,
मैं शांत हूँ ठहरे पानी सा।।

सुनील पंवार (स्वतंत्र युवा लेखक:- एक कप चाय और तुम)
रावतसर
जिला:-हनुमानगढ़(राजस्थान)

Sunday, 18 October 2020

पहले के जैसे


 पहले के जैसे

अब वो लोग नजर नही आते, 

धुंधली आंखो से भीड में अब चेहरे नहीं पहचाने जाते, 


पास बैठकर बातें करना बीती बात थी,

अब लौटकर वो जमाने नहीं आते। 


पुराने खतो को अब कौन बार बार पढा करता हैं,

मोबाइल के इस दौर में अब पहले के जैसे उनमें

तराने नहीं आते। 


तरक्कीया करली हैं कि अब तो नफरतो ने भी,

मुस्कुरा के कत्ल करदो तो लोग गम जताने नहीं है आते। 


और सुना हैं कि एब उसे भी लग गया है 

महफ़िल में जाने का, 

मगर अफसोस की वो चार दोस्त पुराने नही आते। 


पहले के जैसे अब जमाने नही आते। 



स्वरचित 

सुमन

इस क्षणिक जीवन में

 



इस क्षणिक जीवन में

हर स्त्री चाहती है

एक ऐसा कंधा

जो उसके मन का बोझ ढो सके

जिस पर सर रखकर

वो हो जाना चाहती है निश्चिंत

मन में उपजे हर विषाद का

विराम चाहती है वहां

जानती है इसकी मजबूती

और कई रिश्तों के 

टंगे हैं इस पर झोले

और सहजता से उठा लेता है

ये सबका बस्ता

नभ की तरह अटल है

इस पर किया जाने वाला विश्वास

कोई अलंकार इसकी विशिष्टता

को नहीं कर पाता चिन्हित

इसका श्रृंगार इसकी बलिष्ठता है

हर स्त्री बन जाना चाहती है डेल्टा

उस विशाल सागर में समाहित होने से पूर्व

खामोशी और उदासीनता के आवरण में 

वो बन जाना चाहती है उन अधरों की मुस्कान

इस क्षणिक जीवन में

चार कंधों से पहले वो

चाहती है एक कंधा!!


ममता धवन 

(नई दिल्ली )

समर तुम्हें लड़ना होगा





समर तुम्हें लड़ना होगा

सुनो, सुकुमारियों अपनी खातिर

दृढ़ प्रण  तुम्हें अब  करना होगा

त्यागकर कोमल मार्ग तुम्हें अब

अग्निपथ चयन कर चलना होगा


बहुत ढो चुकी भार व्यथा का

लपट ज्वाला बन जला दो तुम

धूलि कन जो हैं तुम्हें समझते

संहारिका बन उन्हें दिखा दो तुम


मौन तोड़ सदियों का तुमको

हस्त शस्त्र धारण करना होगा

अब निर्झर शीतल धार  नहीं

अग्नि अबाध दरिया बनना होगा


आभूषण लालच छोड़ तुम्हें

अंग शस्त्र भूषित करना होगा

अपनी लाज बचाने को तन्याओं

अग्निकुंड तुम्हें बनना होगा


देवालय,धर्म चौखटें लांघकर

पाप- पुण्य छोड़ बढ़ना होगा

अपने कोमल गात का तुमको

स्वयं रक्षण अब करना  होगा


उर, मस्तिष्क से मूर्तियों का भ्रम

खोल हटा, सत्यदर्शी बनना होगा

तार्किक, शक्तिशालिनी बनकर

देह,अधिकार समर डट लड़ना होगा

~ डॉ. राजकुमारी

  सहायक प्रवक्ता

    नई दिल्ली

कौन कहता हैं

 


कौन कहता हैं आलोचनाएँ रोक सकती हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ प्रगति पथ पर रोड़े जैसी हैं ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ बल नहीं देती ?

कौन कहता हैं आलोचनाएँ सबंल नहीं देती? 


आलोचनाएँ प्रगति पथ प्रशस्त करती हैं ।

आलोचनाएँ रक्त में ऊबाल भरती हैं ।

आलोचना हैं तो क्या साहस से खड़ा हूँ मैं ?

आलोचना हैं तो क्या पर्वत से लड़ा हूँ मैं? 


आलोचनाएँ हमको सुमार्ग देती हैं ।

आलोचनाएँ हमको गंतव्य हजार देती हैं ।

आलोचनाएँ मझधार में पतवार जैसी हैं ।

आलोचनाएँ संघर्ष पथ पर फुहार जैसी हैं ।


आलोचना नहीं जिसकी समझो वो जीवित नहीं यहाँ ।

जो -जो चाँद बनकर चमका सबकी हुई थी आलोचना यहाँ ।

आलोचनाओं की सीढ़ी बनाकर व्योम पर चढ़ूंगा मैं ।

चमकूंगा चाँद बनकर सबको रौशन करूंगा मैं ।


फिर आलोचनाओं से क्यों डर कर जिएंगे हम ?

आगे बढ़ेगें हम आलोचनाओं को शीर्ष पर रखेंगे हम ।।


संध्या झा 

पटना (बिहार)

वो चार लोग






 वो चार लोग

बचपन से लेकर आज तक दूंढ रही हूँ मैं, 

कहाँ है वो चार लोग जिनके लिए अपनो से डरी मैं, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए बचपन से दबी मैं, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए अपने सपने छोड़े मैंने, 

कहाँ हैं वो चार लोग जिनके लिए हँसना छोड़ दिया मैंने, 

 किया मुझे मेरे ही सपनो मे गुम मिटा दिये मेरे सारे ख़्वाब, 

कहते हैं वो चार लोग ऐसे देखेंगे तो क्या कहेंगे, 

क्या सोचेंगे वो चार लोग यह सोचकर अपनी सोच खो दी मैंने, 

और आज खोजती हूँ मैं वो चार लोगो को जिन्होंने मेरे जन्म से लेकर

आज तक लड़की होना कितना गलत है ये समझाया,

मुझे दहलीज दिखाई और खुद आसमान देखते थे, 

मेरे पंख तोड़ कर ख़ुद उड़ाने भरते रहे, 

कहाँ है आज वो चार लोग जब मेरी आबरू लुटती रही बाजारों में, 

जब जब ढूँढ़ा उन्हे ना मिले मुझे वो चार लोग, 

आज मेरी मौत की शैया मे आए नजर मुझे वो चार लोग,

जिनकी खुशी के लिए मैंने ख़ुदको तबाह कर दिया, 

आज नजर आए मुझे वो चार लोग।।।


श्रीमती नीलिमा 

जबलपुर 

कहानी ही तो हूँ बस........




 कहानी ही तो हूँ बस........

कहीं कोख में मारे जाने की,

कभी पैदा होने पर कुचले जाने की,

कभी भूखे भेडि़यों की प्यास बनी,

मेरा अस्तित्व है ही कहाँ,

पैदा होने पर श्राप बताया,

जाने किस-किसने क्या-क्या,

 मेरी माँ को सुनाया,

बुआ-दादी की आँखो की चुभन बनी,

कब किसने मेरे मन की सुनी,

ससुराल भेज मुझको सबको चैन आया,

मायके से बैगाना बनाया,

मेरे अपनो ने ही पराया धन बताया,

ससुराल में भी,

वजूद पाने की जद्वोजहद रही,

पति के नाम से मेरी पहचान बनी,

सासू माँ को पौता दे दूँ,

पति की सेज सजादूँ,

घर के हर कोने की मैं जरूरत बनी,

वजूद अपना हर वक्त तलाशती रही,

ना मैं मायके में कुछ थी,

ना मैं ससुराल में कुछ बनी

कहानी ही तो हूँ बस....... एक स्त्री।।



डाँ.नवीन

(हरियाणा )

मैं एक लड़की हूँ।





 मैं एक लड़की हूँ।

जोर से न हंसू,

कही न जाऊँ,

घर के काम सीखू,

क्यौंकि मैं एक लड़की हूँ।


सादा रूप है मेरा,

रंग भी है काला,

फिर दहेज भी ज्यादा,

क्योकि मैं एक लड़की हूँ।


विवाह के बाद मैं जिम्मेदार,

बच्चे,बड़े,घर और परिवार,

सारी बातों के लिये तय्यार,

क्योकिं मैं एक लड़की हूँ।


चुप रहू कुछ न बोलू ,

सिर्फ मै  सबकी सुनू,

खुली जुबां तो बातें चार,

क्योकि मैं एक लड़की हूँ।


झरना माथुर 

उतराखंड 

टूटे दिल को मेरे तू प्यार ना सीखा,





मत झाँक मुझे चँदा खिड़की की ओट से,
आती है उसकी याद, दिल रोता है ज़ोर से।

चाँदनी में लिपटी संसार ना दिखा,
'प्रीति'की तू रश्में हज़ार ना सीखा।
बहता है काज़ल आँखियों के कोर से
जाती नहीं है याद,
मेरे दिल के ठौर से।

बहारों के मौसम का श्रृंगार ना दिखा,
कैसे रोती है रात बेज़ार ना दिखा।
मत झाँक मुझे सूरज आँगन में भोर से,
पुरानी 'प्रीति' की अगन, दिल रोता ज़ोर से।
टूटे दिल को मेरे तू प्यार ना सीखा,
कैसे बिकता है दिल बाज़ार ना दिखा।
मत झाँक मुझे चँदा खिड़की की ओट से,
आती है उसकी याद, दिल रोता ज़ोर से।

प्रीति मधुलिका